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词条 Draft:आयुर्वेद के अष्टांग
释义

आयुर्वेद अष्टांग

महर्षि चरक ने आयुर्वेद की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिस शास्त्र में आयु सहित आयुष्य आयु दुख का वर्णन हो एवं आयु के हित अहित के लिए आहार विहार तथा औषध ओं का वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं

ब्रह्मा जी ने सबसे पहले आयुर्वेद शास्त्र का स्मरण करके उसे दक्ष प्रजापति को ग्रहण कराया अर्थात पढ़ाया था दक्ष प्रजापति ने अश्विनी कुमार को पढ़ाया था अश्विनी कुमार ने देवराज इंद्र को पढ़ाया था उन्होंने अग्नि पुत्र आदि महा ऋषि यों को पढ़ाया था आत्रेय आदि ने अग्निवेश भीड़ जुट करण पराशर हरित शहर पानी आदि को पढ़ाया था और फिर अग्निवेश आदि महा ऋषि यों ने अलग-अलग तंत्रों और आयुर्वेद शास्त्रों की विस्तार से रचना की।

चरक चिकित्सा स्थान के बाद चार बटे तीन में कहा गया है कि एक बार देवराज इंद्र के पास आयुर्वेद संबंधी उपदेश सुनने के लिए ब्रिंग ओं अंगिरा अत्री वशिष्ठ कश्यप अगस्त्य पुलस्त्य रामदेव अजीत गौतम आदि अनेक ऋषि गए थे सुश्रुत सूत्र स्थान एक बटे तीन में देवराज इंद्र ने धन्वंतरि आदि ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था उस काल में श्रुति तथा स्मृति यही विद्या प्राप्ति तथा संग्रह के उपाय थे।

आयुर्वेद के आठ अंग काय चिकित्सा बाल तंत्र ग्रह चिकित्सा ऊर्धवा चिकित्सा शाली चिकित्सा दृष्टि चिकित्सा जरा चिकित्सा वरिष्ठ चिकित्सा यह आठ अंग कहे गए हैं इन्हीं अंगों में संपूर्ण चिकित्सा आश्रित है आयुर्वेद शास्त्र में संक्षिप्त तीन ही दोष माने जाते हैं यथा पहला बात दूसरा पित तीसरा कफ

पंचमहाभूत ओं में आकाश तत्व अवकाश के रूप में शरीर रहता है और पृथ्वी तत्व आधार स्वरूप है यह दोनों मैं किसी प्रकार की क्रिया नहीं होती शेष तत्वों का विवरण इस प्रकार है जल तत्व कप है अग्नि तत्व पिता है और वायु तत्व ही बात है।

उक्त बात आदि दोषों के प्रभाव से अग्नि भी दोषों के क्रम से विषम दक्षिण और मंद हो जाती है तथा इन तीनों के समूह मात्रा में रहने पर अग्नि भी सम प्रमाण में रहती है

वात दोष के गुण यहां जो बात का गुण शीत कहा गया है उसका विवेचन प्रस्तुत है शरीर स्थित वात दोष अथवा प्रतिशत बहने वाला वायु जाड़ा में शीत और गर्मियों में गर्म प्रवृत्ति का होता है अतः यहां जैसा मौसम में होता है वैसे ही इसका स्पर्श होता है वास्तव में यहां वायु अनुशासित है अर्थात लो यह गर्म और ना यहां शीतल।

पितृ दोष के गुण यह कुछ स्निग्ध कृष्णा हुस्न लघु विश्व सर तथा द्रव्य होता है जब वमन के साथ पितृदोष हरा पीला रंग का निकलता है तब उसे सुनने पर इसकी विश्व गंद का ज्ञान होता है यह एक प्रकार की अप्रिय बंद है यहां ने स स्नेहा का अर्थ है थोड़ा स्नेहा युक्त होना कफ दोष के गुण स्नेक दृश्य गुरु मंत्र अमृतसर तथा स्थिर होता है अमृतसर शब्द से यहां जो टीका का रोने पिछला अर्थ लिया है उसका है वास्तव में मृत्सन्न का अर्थ मिट्टी होता है और मिट्टी दो प्रकार की होती है चिकनी लिपाई पुताई होती है अथवा जिससे घड़े आदि पात्र बनते हैं और दूसरी बल्लू ही मिट्टी होती है जिसे यहां तक बात आदि दोषों में रहने वाले गुणों का वर्णन दिया गया है क्योंकि उनमें रहते हैं अतएव माता दी दोषों का ग्रहण चिकित्सा आदि

आयुर्वेद अष्टांग

महर्षि चरक ने आयुर्वेद की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिस शास्त्र में आयु सहित आयुष्य आयु दुख का वर्णन हो एवं आयु के हित अहित के लिए आहार विहार तथा औषध ओं का वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं

ब्रह्मा जी ने सबसे पहले आयुर्वेद शास्त्र का स्मरण करके उसे दक्ष प्रजापति को ग्रहण कराया अर्थात पढ़ाया था दक्ष प्रजापति ने अश्विनी कुमार को पढ़ाया था अश्विनी कुमार ने देवराज इंद्र को पढ़ाया था उन्होंने अग्नि पुत्र आदि महा ऋषि यों को पढ़ाया था आत्रेय आदि ने अग्निवेश भीड़ जुट करण पराशर हरित शहर पानी आदि को पढ़ाया था और फिर अग्निवेश आदि महा ऋषि यों ने अलग-अलग तंत्रों और आयुर्वेद शास्त्रों की विस्तार से रचना की।

चरक चिकित्सा स्थान के बाद चार बटे तीन में कहा गया है कि एक बार देवराज इंद्र के पास आयुर्वेद संबंधी उपदेश सुनने के लिए ब्रिंग ओं अंगिरा अत्री वशिष्ठ कश्यप अगस्त्य पुलस्त्य रामदेव अजीत गौतम आदि अनेक ऋषि गए थे सुश्रुत सूत्र स्थान एक बटे तीन में देवराज इंद्र ने धन्वंतरि आदि ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था उस काल में श्रुति तथा स्मृति यही विद्या प्राप्ति तथा संग्रह के उपाय थे।

आयुर्वेद के आठ अंग काय चिकित्सा बाल तंत्र ग्रह चिकित्सा ऊर्धवा चिकित्सा शाली चिकित्सा दृष्टि चिकित्सा जरा चिकित्सा वरिष्ठ चिकित्सा यह आठ अंग कहे गए हैं इन्हीं अंगों में संपूर्ण चिकित्सा आश्रित है आयुर्वेद शास्त्र में संक्षिप्त तीन ही दोष माने जाते हैं यथा पहला बात दूसरा पित तीसरा कफ

पंचमहाभूत ओं में आकाश तत्व अवकाश के रूप में शरीर रहता है और पृथ्वी तत्व आधार स्वरूप है यह दोनों मैं किसी प्रकार की क्रिया नहीं होती शेष तत्वों का विवरण इस प्रकार है जल तत्व कप है अग्नि तत्व पिता है और वायु तत्व ही बात है।

उक्त बात आदि दोषों के प्रभाव से अग्नि भी दोषों के क्रम से विषम दक्षिण और मंद हो जाती है तथा इन तीनों के समूह मात्रा में रहने पर अग्नि भी सम प्रमाण में रहती है

वात दोष के गुण यहां जो बात का गुण शीत कहा गया है उसका विवेचन प्रस्तुत है शरीर स्थित वात दोष अथवा प्रतिशत बहने वाला वायु जाड़ा में शीत और गर्मियों में गर्म प्रवृत्ति का होता है अतः यहां जैसा मौसम में होता है वैसे ही इसका स्पर्श होता है वास्तव में यहां वायु अनुशासित है अर्थात लो यह गर्म और ना यहां शीतल।

पितृ दोष के गुण यह कुछ स्निग्ध कृष्णा हुस्न लघु विश्व सर तथा द्रव्य होता है जब वमन के साथ पितृदोष हरा पीला रंग का निकलता है तब उसे सुनने पर इसकी विश्व गंद का ज्ञान होता है यह एक प्रकार की अप्रिय बंद है यहां ने स स्नेहा का अर्थ है थोड़ा स्नेहा युक्त होना कफ दोष के गुण स्नेक दृश्य गुरु मंत्र अमृतसर तथा स्थिर होता है अमृतसर शब्द से यहां जो टीका का रोने पिछला अर्थ लिया है उसका है वास्तव में मृत्सन्न का अर्थ मिट्टी होता है और मिट्टी दो प्रकार की होती है चिकनी लिपाई पुताई होती है अथवा जिससे घड़े आदि पात्र बनते हैं और दूसरी बल्लू ही मिट्टी होती है जिसे यहां तक बात आदि दोषों में रहने वाले गुणों का वर्णन दिया गया है क्योंकि उनमें रहते हैं अतएव माता दी दोषों का ग्रहण चिकित्सा आदि अवसरों पर उनके गुणों को देखकर आ सकता है।

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